हाट बिकाने
बाट बिकाने
सरे आम चौराहे ऊपर
अपने सारे ठाट बिकाने।
घर में घुसी दुकान हमारे
गिरवी रखे महल चौबारे,
अंगड़-खंगड़ में हम बदले
किए व्यर्थ में कागज कारे।
एक बिसाती ऐसा आया
लाद नदी ले गया शहर को
अपने तीरथ-घाट बिकाने।
सोने के दिन पीतल निकले
रात की नींद चुराई चोरों,
कैसे प्यास बुझेगी अपनी
दरके-भसके हुए सकोरों।
भूखे पेट प्रवचन सुनते
घर की फटी-चिंथी रामायन
पुरखों की आखिरी निशानी
अपने चकिया-पाट बिकाने।
शहर-दर-शहर बच्चे भटके
सपने गटर-मोरियों अटके,
पैकेजों में बँटी जिंदगी
हुए न कम पापा के खटके।
जो थे खुद मुख्तार
कचहरी जिनकी बैठक
हाथ कबाड़ी-बारी-बारी
उनके रेशम-टाट बिकाने।